उदास शाम

ढ़ल रही अब शाम, आज कांतिहीन उदास,
भूला सा भ्रमित मैं, आज खुद अपने पास!

छिटक गई है डोर जैसे उस चिर विश्वास की,
टूट गई है साँस ज्यूँ उर के हास विलास की!

धुंध में सहमी सी है अाज शाम उदास क्लांत,
कितना असह्य अब ये एकाकीपन का एकांत!

घुटन सी इन साँसों में, मन कितना अशांत,
अवरोध सा ऱक्त प्रवाह में. हृदय आक्रान्त ।

हौले हौले उतर रहा, निर्मम तम का अम्बार,
अपलक खुले नैनों में, छुप रहा व्यथा अपार।

सौ-सौ संशय मन में, लेकिन शाम है उदास,
टूट है वो धागा जिसमें मेरी आस्था मेरी आस|

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