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Showing posts from 2016

अभ्र पर शहर की

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आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता, अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा, वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा, रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता, छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता, बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना, खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! अभ्र = आकाश, वारिद, अम्बुद=मेघ विहंग=पक्षी

नारी: ईश्वरीय एहसास

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एहसास खूबसूरती का जब ईश्वर को हुआ, श्रृष्टि निर्माता ने तब ही जन्म स्त्री को दिया। इक एहसास कोमलता का जब हुआ होगा, तब  उसने स्त्री का कोमल हृदय रचा होगा। जग के भूख प्यास की जब हुई होगी चिन्ता, तब उसने माता के आँचल में दूध भरा होगा। जब एहसास कोमल भाव की मन में जागी, ममत्व, स्त्रीत्व, वात्सल्य तब नारी को दिया। धैर्य, संकल्प, सहनशीलता, भंडार ग्यान का, सम्पूर्ण रूपेण नारी को उसने दे दिया होगा। चाँदनी का घमंड तोड़ने को ही शायद उसने, अकथनीय अवर्णनीय सुन्दरता नारी को दी। सुन्दरता को परिभाषित करते करते उसने, नारी रूप की परिकल्पना कर डाली होगी।

अक्सर

अक्सर अन्त:मानस मे एकाकीपन की कसक सी, अंतहीन अन्तर्द्वन्द अक्सर अन्तरआत्मा में पलती, मानस पटल पर अक्सर एक एहसास दम तोड़ती| अक्सर वो एकाकीपन बादल सा घिर आता मन में, दर्द का अंतहीन एहसास अकसर तब होता मन मैं, तप, साधना, योग धरी की धरी रह जाती जीवन में| अक्सर रह जाते ये एहसास अनुत्तरित अनछुए से, अंतहीन अनुभूति लहर बन उठती अक्सर मन से, तब मेरा एकाकीपन अधीर हो कुछ कहता मुझसे|

संध्या जीवन

ढ़ल रहा सांध्य गगन सा जीवन! क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन, भीनी सांध्य का सुनहला पन, संध्या का नभ से मूक मिलन, यह अश्रुमती हँसती चितवन! भर लाता ये सासों का समीर, जग से स्मृति के सुगन्ध धीर, सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर, रोमों में पुलकित  कैरव-वन ! आदि-अन्त दोनों अब  मिलते, रजनी दिन परिणय से खिलते, आँसू हिम के सम कण ढ़लते, ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!

उपेक्षित मन

रखा था मैंनै सहेज कर मन को, उस दरवाजे के पीछे लाल दराज में, जाने कहाँ गुम आज सुबह से वो, दिखाई देता नही क्या नाराज वो? कुछ कहा सुनी हुई नही मन से, जाने किसने छेड़ा आज उस मन को, दुखा होगा शायद दिल उसका भी, पहले तो ना था इतना नासाज वो! कल जब की थी उससे मैने बातें, तब खुश बड़ा दिख रहा था मन वो, आज अचानक है बीती उसपे क्या? बंद पड़ी आज क्यों आवाज वो? मन का हृदय भी होता है शायद! बात चुभी है क्या कोई उसको? या फिर संवेदना जग गई है उसकी! समझ सका नहीं मैं आवाज मन की? जैसे तैसे रख छोड़ा था मैंने उसको ही, लाल दराज के कोने मे दरवाजे के पीछे ही, सुध मैने ही ली नही कभी उसकी, उपेक्षा मेरे ही हाथों से हुई आज मन की? ओह ये क्या? मन तो यहीं पड़ा है! तकिए के नीचे शायद कुचल गया वो, आवाज रूंध चुकी है थोड़ी उसकी, कम हो रही रफ्तार मन के सांसों की! मन तो है मतवाला करता अपने मन की, मन की ना सुनो तो ये सुनता कहाँ किसी की, मन दिखलाता आईना आपके जीवन की, विकल होने पहले सुन लो तुम साज इस मन की!

शाम कुछ यहाँ कुछ वहाँ

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हुई है शाम दोनो तरफ, कुछ यहाँ भी और वहाँ भी, पल रहे अरमान दोनों तरफ, इक यहाँ और इक वहाँ भी, सिलसिले तन्हाईयों के अब हैं,  कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी। इक सपना पल रहा यहाँ, एक पल रहाँ वहाँ भी, नींद आँखों से है गुमशुदा, कुछ यहाँ और कुछ वहाँ भी, धड़कनें की जुबाँ अब बेजुबाँ हैं,  कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी। ख्वाब आँखों मे पल रहे हैं, कुछ  यहाँ और कुछ वहाँ भी। बजती है मन में शहनाईयाँ, अब यहाँ और वहाँ भी, गीत साँसों मे अब बज रही है,  कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी। कतारें रौशनी की अब, कुछ यहाँ भी कुछ वहाँ भी। इंतजार उस पल का, अब यहाँ भी वहाँ भी, शाम ढल रही अब तुम बिन,  कुछ यहाँ भी और कुृछ वहाँ भी।

अनुभव मीठे हो जाते

अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते। राह सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते। उबड़ खाबर इन रास्तों पर, दूभर सा लगता जीवन का सफर, पीठ अकड़ सी जाती यहाँ, टूट जाते है अच्छे-अच्छों के कमर। सफर सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते। अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते। टेढे मेढे रास्ते ये जीवन के, अनुभव कुछ खट्टे मीठे मिलेजुले से, तीते लगते कुछ फल बेरी के, दाँत कटक जाते हैं अच्छे-अच्छों के। अनुभव मीठे हो जाते, तुम साथ अगर दे देते। सफर सरल हो जाता, तुम साथ अगर दे देते।

उदास शाम

ढ़ल रही अब शाम, आज कांतिहीन उदास, भूला सा भ्रमित मैं, आज खुद अपने पास! छिटक गई है डोर जैसे उस चिर विश्वास की, टूट गई है साँस ज्यूँ उर के हास विलास की! धुंध में सहमी सी है अाज शाम उदास क्लांत, कितना असह्य अब ये एकाकीपन का एकांत! घुटन सी इन साँसों में, मन कितना अशांत, अवरोध सा ऱक्त प्रवाह में. हृदय आक्रान्त । हौले हौले उतर रहा, निर्मम तम का अम्बार, अपलक खुले नैनों में, छुप रहा व्यथा अपार। सौ-सौ संशय मन में, लेकिन शाम है उदास, टूट है वो धागा जिसमें मेरी आस्था मेरी आस|

तुुम मैं होती, मैं तुम होता

कभी सोचता हूँ! मैं मैं न होता, तेरा आईना होता! तो क्या क्या होता इस मन में? क्या गुजरती तुझपर मुझपर जीवन में? तुम देखती मुझमें अक्श अपना, हर पल होती समीक्षा जीवन की मेरी, तेरे आँसूँ बहते मेरी इन आँखों से, तुम हँसती संग मैं भी हँस लेता, रूप तेरा देखकर कुछ निखर मैं भी जाता, मेरा साँवला रंग थोड़ा गोरा हो जाता। कभी सोचता हूँ! तुम तुम न होती, मेरी प्रतीक्षा होती! तो क्या क्या घटता उस पल में? क्या गुजरती तुझपर मुझपर जीवन में? द्वार खड़ी तुम देखती राह मेरी, मैं दूर खड़ा दैेखता मुस्काता, इन्तजार भरे उन पलों की दास्ताँ, तेरी बोली में सुनता जाता, खुश करने को तुम्हें वापस जल्दी आता, मैं पल पल इंतजार के तौलता। कभी सोचता हूँ! तुुम मैं होती, मैं तुम होता....

पकता मानव

जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव। न जाने किस स्वर नगरी में मानव, हैं बज रहा यूँ ज्यूँ तेज घुँघरू की रव, कुछ राग अति तीव्र, कुछ राग अभिनव। न जाने किन पदचिन्हों पर अग्रसर, पल पल कितने ही मिश्रित अनुभव, संग्रहित कर रहा इन राहों पर मानव। कुछ अकथनीय और कुछ असंभव, कुछ खट्टे मीठे और कुछ कटु अनुभव, क्या जीवन इस बिन हो सकता संभव? जीवन की भट्ठी में पक रहा मानव।

जाने रहता वो किस तारे में

अम्बर के इस अंधियारे में, तलाशता हूँ मैं अपने तारे को, बिछड़ा मुझसे जो इस जीवन में, शून्य में जिसके मिट चुके हैं स्वर, धूलि में खोई जिसकी निशानी। गाता अब वो पार उस अंबर से, स्वर जिसके मिटे नहीं इस मन से, हृदय कंपित अब भी उस स्वर से, धूल कण सा उड़ता वो मानस में, स्वर गुम हुई वो जाने किस तारे में। था इस जीवन का आधार वो, पल में छूटा ना जाने कैसे हाथ वो, कहते हैं अब रहता अंबर पार वो, कभी दिखता किसी तारे में वो, तलाशता अंबर का मैं तारा वो। लाखों तारे टकते इस अंबर मे, धूलकण वो जाने किस तारे में, संगीत गुमशुम जाने किस शून्य में, नीर नीर सी छलकी आँखों में, जाने रहता वो अब किस तारे में।

अनकहे मौन

अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन। मौन सृष्टि का परिचायक, मौन वाणी वसुधा की, मौन कंठ वेदना के, मौन स्वर साधक के, अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन। अनसुने स्वर मौन की, घुट रहे अब अंदर ही अंदर, बिखर गए स्वर लहरी ये, सृष्टि की मन के अंदर। अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन। नैन मौन बहते आँसू बन, हृदय पीड़ सहता मौन बन, मौन खड़ी पर्वत पीड़ बन, मौन रमता बालक के मन। अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन। ग्यान साधक के अन्दर मौन, अग्यानी दूर सोचता मौन, उत्कंठा, जिग्यासा मौन, घट घट में व्याप्त मौन, अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन। मौन ईश्वर के स्वर, मौन प्राणों के प्रस्वर, मौन मृत्यु के आस्वर, मौन दृष्टि उस महाकाल की। अनकहे मौन सुनता यहाँ कौन, शब्दों की लय कहता नहीं मौन।

अनछुआ शब्द

मैं अनछुआ शब्द हूँ एक! किताबों में बन्द पड़ा सदियों से, पलटे नही गए हैं पन्ने जिस किताब के, कितने ही बातें अंकुरित इस एक शब्द में, एहसास पढ़े नही गए अब तक शब्द के मेरे। एक शब्द की विशात ही क्या? कुचल दी गई इसे तहों मे किताबों की, शायद मर्म छुपी इसमे या दर्द की कहानी, शून्य की ओर तकता कहता नही कुछ जुबानी, भीड़ में दुनियाँ की शब्दों के खोया राह अन्जानी। एक शब्द ही तो हूँ मैं! पड़ा रहने दो किताबों में युँ ही, कमी कहाँ  इस दुनियाँ में  शब्दों की, कौन पूछता है बंद पड़े उन शब्दों को? कोलाहल जग की क्या कम है सुनने को? अनछुआ शब्द हूँ रहूँगा अनछुआ! इस दुनियाँ की कोलाहल दे दूर अनछुआ, अतृप्त अनुभूतियों की अनुराग से अनछुआ, व्यक्त रहेगी अस्तित्व मेरी "कविता काव्य" में अनछुआ, अपनी भावनाओं को खुद मे समेट खो जाऊँगा अनछुआ।

जीवन की खोह ये अजीब सी

चले जा रहे हैं हम, न जाने किस खोह में, बढी़ जा रही जिन्दगी, न जाने किस खोज में, है ये यात्रा अनंत सी, न जाने किस ओर में। मंजिलो की खबर नहीं, न रास्तों का पता, ये कौन सी मुकाम पर, जिन्दगी है क्या पता, यात्री सभी अंजान से, न दोस्तों का है पता। खोह ये अजीब सी, रास्ते कठिन दुर्गम यहाँ, चल रहें हैं सब मगर, इक बोझ लिए सर पे यहाँ, पाँव जले छाले पड़े, पर रुकती नही ये कारवाँ। एक पल जो साथ थे, साथ हैं वो अब कहाँ, एक एक कर दोस्तों का, अब साथ छूटता यहाँ, सांसों की डोर खींचता, न जाने कौन कब कहाँ। दिशा है ये कौन सी, जाना हमें किस दिशा, भविष्य की खबर नहीं, गंतव्य का नहीं पता, असंख्य प्रश्न है मगर, जवाब का नहीं पता। कण मात्र है तू व्योम का, इतने न तू सवाल कर, तू राह पकड़ एक चल, उस शक्ति पे तू विश्वास कर, हम सब फसे इस खोह में, चलना हमें इसी डगर। मुक्ति मिलेगी खोह से, तू चलता रहा अगर, ईशारे उस पराशक्ति के, तू समझता रहा अगर, खिलौने उस हाथ के, जाना है टूट के बिखर।

स्मृति

धुँधली रेखायें, खोई मधु-स्मृतियों के क्षण की, चमक उठें हैं फिर, विस्मृतियों के काले घन में, घनघोर झंझावात सी उठती विस्मृतियों की, प्रलय उन्माद लिए, उर मानस कम्पन में, जाग उठी नींद असंख्य सोए क्षणों की, हृदय प्राण डूब रहे, अब धीमी स्पन्दन में, गहरी शिशिर-निशा में गूंजा जीवन का संगीत, जीवन प्रात् चाहे फिर, अन्तहीन लय कण-कण में, जीवन पार मृत्यु रेखा निश्चित और अटल सी, प्राण अधीर प्रतिपल चाहे मधुर विस्मृति प्रांगण मे, बीते क्षणों के स्पंदन में जीवन-मरण परस्पर साम्य, मिले जीवन सौन्दर्य, मर्त्य दर्शन, प्रतिपल हर क्षण में, धुँधली रेखाओं की उन खोई मधु-स्मृतियों संग, कर सकूं मृत्यु के प्रति, प्राणों का आभार क्षण-क्षण में!

संध्या मनुहार

उमर अवसान की ओर अग्रसर, मद्धिम हो रहा उफनते ज्वार का आवेग, आँखों पर छा रहा हल्का सा धुंधला धीरे धीरे, अवसान की संध्या का मैं करता मनुहार। जीवन शिला यह पिघल रहा अब, भरोसा खुद की सामर्थ पर नही हो रहा अब, अकड़ मासपेशियाँ की ढ़ीली पड़ रही धीरे-धीरे, फूट जाए कब कांच का घट करता विचार। अधूरी छूट जाए न कोई कहानी, टूट जाए न इरादों वादों की कोई जुवानी, यह घुटन यह यातना हर पल सहता मैं धीरे-धीरे, सांध्य प्रहरी की नक्षत्र का मै करता मनुहार।